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कुबेर का एकलौता स्वतंत्र मंदिर: यक्षों के अधिपति यहां विराजते हैं भोलेनाथ के नजदीक

यूं तो देश में लाखों की तादाद में मंदिर है, जिनमें से कुछ अत्यंत चमत्कारी व विशेष धाम हैं। इन्हीं खास व चमत्कारी मंदिरों में से एक है कुबेर का मंदिर, जिसके संबंध में मान्यता है कि कुबेर आज भी यहां वास करते हैं…

उत्तर दिशा के दिक्पाल कुबेर धन व विलास के देवता कहे गए हैं। वे यक्षों के अधिपति हैं। प्राचीन ग्रंथों में उन्हें वैश्रवण, निधिपति एवं धनद नामों से भी सम्बोधित किया गया है। वे ब्रहमा के मानस पुत्र पुलस्त ऋषि तनय वैश्रवा के बेटे माने गये हैं। वैश्रवा सुत होने के कारण ही उन्हें वैश्रवण नाम दिया गया है। वराह पुराण में कहा गया है कि उन्हें ब्रहमा ने देवताओं का धनरक्षक नियुक्त किया था।

यजुर्वेद में काम के अधिष्ठाता देवता के रूप में सभी अभिलाषाएं पूर्ण करने वाले वैश्रवण का उल्लेख आता है। प्राचीन ग्रंथों में उल्लेख है कि उत्तर दिशा में जीवन के स्वस्थ उपभोग पर विश्वास करने वाली यक्ष संस्कृति भी फैली हुई थी, जिसने काव्य और ललित कलाओं का सर्वाधिक प्रसार किया। कालीदास ने कुबेर की राजधानी अलका बताई है जो हिमालय में स्थित है। माना जाता है कि महाभारत में जिस मणिभद्र यक्ष का जिक्र है, वह बद्रीनाथ के पास माणा में ही निवास करते थे।

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दरअसल भगवान शंकर की तपोस्थली देवभूमि उत्तराखंड के जागेश्वर महादेव (अल्मोड़ा) के मुख्य परिसर से पैदल दूरी पर एक छोटी पहाड़ी की चोटी पर कुबेर मंदिर है। इस मंदिर को अत्यधिक चमत्कारी माना जाता है। यह मंदिर परिसर मुख्य मंदिर परिसर से लगभग 300 से 400 मीटर दूर है। इस परिसर के दो मुख्य मंदिर कुबेर मंदिर और देवी चंदिका मंदिर हैं।

इस मंदिर के संबंध में मान्यता है कि जो भी व्यक्ति यहां से एक सिक्का अपने साथ ले जाता है और उसे संभाल कर अपने पूजा स्थल या तिजोरी में रखकर रोज उसकी पूजा करता है, उसे आजीवन कभी गरीबी का मुंह नहीं देखना पड़ता। यहां कुबेर मंदिर एक उठें हुए मंच पर बनाया गया है और रेखा-शिखर वास्तुकला का अनूपम उदाहरण हैं। वास्तुशिल्प शैली में यह महा-मित्युनंजय मंदिर जैसा दिखता है। मंदिर में एक दुर्लभ एक मुखी शिवलिंग है जो दसवीं शताब्दी ईस्वी की तारीख का है साथ ही शक्ति पंथ की देवी चंदिका मां का मंदिर है, जो कि वल्लबी शैली में बनाया गया है।

कुबेर का निवास वट-वृक्ष कहा गया है। `वाराह-पुराण´ के अनुसार कुबेर की पूजा कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा के दिन की जाती है। वर्त्तमान में दीपावली पर धनतेरस को इनकी पूजा की जाती है। कुबेर को प्रसन्न करने के लिये महा-मृत्युंजय मन्त्र का दस हजार जप आवश्यक है।

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कुबेर मंत्र –

विनियोग – ॐ अस्य मन्त्रस्य विश्रवा ऋषि:, वृहती छन्द:, कुबेर: देवता, सर्वेष्ट-सिद्धये जपे विनियोग:।ऋष्यादि-न्यास – विश्रवा-ऋषये नम: शिरसि, वृहती-छन्दसे नम: मुखे, कुबेर-देवतायै नम: हृदि। सर्वेष्ट-सिद्धये जपे विनियोगाय नम: सर्वांगे।

षडग्-न्यास

कर-न्यास

अग्-न्यास

ॐ यक्षाय

अंगुष्ठाभ्यां नम:

हृदयाय नम:

ॐ कुबेराय

तर्जनीभ्यां स्वाहा

शिरसे स्वाहा

ॐ वैश्रवणाय

मध्यमाभ्यां वषट्

शिखायै वषट्

ॐ धन-धान्यधिपतये

अनामिकाभ्यां हुं

कवचाय हुं

ॐ धन-धान्य-समृद्धिं मे

कनिष्ठिकाभ्यां वौषट्

नेत्र-त्रयाय वौषट्

ॐ देही दापय स्वाहा

करतल करपृष्ठाभ्यां फट्

अस्त्राय फट्

ध्यान –

मनुज बाह्य विमान स्थितम्, गरूड़ रत्न निभं निधि नायकम्।

शिव सखं मुकुटादि विभूषितम्, वर गदे दधतं भजे तुन्दिलम्।।

मंत्र –

ॐ यक्षाय कुबेराय वैश्रवणाय धन-धान्याधिपतये धन-धान्य-समृद्धिं मे देहि दापय स्वाहा। ”

मान्यता है कि इस मंत्र का एक लाख जप करने पर सिद्धि होती है।

भारत में कुबेर पूजा प्राचीन काल से चली आ रही है। उत्तराखंड में भी जाख और जाखिणी शब्द अत्यंत प्रचलित है। इन्हें ग्राम रक्षक भी माना जाता है। यहां भी यक्ष पूजा की प्राचीन परम्परा के अनेक प्रमाण मिलते हैं। परन्तु उनका कोई स्वतंत्र मंदिर अभी तक प्राप्त नहीं हुआ है (जागेश्वर छोड़कर )। यहां मौजूद कूबेर के मंदिर के शीर्ष से मुख्य मंदिरों का एक अच्छा दृश्य दिखता है।

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वहीं देवीभूमि उत्तराखंड के कुमाऊं से यक्षों की अनेक प्रतिमाएं प्रकाश में आयी हैं, परन्तु समय की मार से उनमें से अधिकांश दयनीय स्थिति में आ गयी है। इनमें राजकीय संग्रहालय अल्मोड़ा में प्रदर्शित तीसरी शती ई0 की यक्ष प्रतिमा इस क्षेत्र से अब तक प्राप्त यक्ष प्रतिमाओं में सर्वाधिक प्राचीन मानी जा सकती है।

प्राचीन ब्राह्मण ग्रंथों के अतिरिक्त जैन और बौध्द ग्रंथों में भी यक्षों के चित्रण की परम्परा थी, लौकिक देवताओं के रूप में भी वे पूजे जाते थे। कुबेर प्रतिमाओें के निश्चित लक्षण निर्धारित हैं। वराहमिहिर के अनुसार यक्षराज कुबेर को सत्ता के प्रतीक मानव विमान युक्त प्रदर्शित किया जाना चाहिये जो किरीट-मुकुट धारण करें हो और विशाल उदर वाले निर्मित होने चाहिए।

वहीं मत्स्य पुराण में उनको विशाल शरीर, लम्बे उदर, अष्टनिधियों सें युक्त, धवल वस्त्रों से आभूषित, अलंकृत कुंडल, सुन्दर हार एवं बाजुबंध धारण किये, किरीट से अलंकृत, गदाधारी तथा नरयुक्त विमान पर विराजमान दिखाने का उल्लेख है।

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परन्तु अग्निपुराण में कुबेर को गदा आयुध सहित मेष पर आरूढ़ निर्मित करने का विधान किया गया है। विष्णुधर्मोत्तर जैसे ग्रंथों में उन्हें उदीच्यवेश, कवच, बाईं गोद में पत्नी ऋध्दि को धारण करे हुए चार हाथ एवं रत्नपात्र से अलंकृत बताया गया है।

कुबेर कमल के समान श्वेत, स्वर्ण के समान पीली आभा वाले कहे गए हैं और उनके वस्त्र भी पीले बताये गए हैं। स्वर्ण को सर्वश्रेष्ठ धन माना गया है, इसलिए स्वर्ण के द्योतक उनके पीत वस्त्र हैं। उनके अतीव बली हाथ उनकी अपार शक्ति के प्रतीक हैं। उनके हाथ मेें सदा रहने वाला गदा दंड नीति का परिचायक है। उनकी पत्नी ऋध्दि देवी जीवन यात्रा की सकारात्मकता की प्रतीक हैं। रत्नपात्र उनके गुणों को प्रदर्शित करता है जबकि नर-विमान पर आरूढ़ होना उनकी राजसत्ता का प्रमाण है । शंख और पद्म निधियों को प्रदर्शित करते है। धान के तोड़े से बनी, नेवले की आकार की थैली जिसे नकुली कहा जाता है उनके हाथ में होती है । धन के देवता के हाथ में यह थैली कुबेर प्रतिमा का आवश्यक अंग है।



Source: Education