आजादी की बात-अंग्रेजों के सामने से गुजरने में भी लगता था डर
अजमेर. आजादी के चार दशक बाद तक राष्ट्रहित की राजनीति होती थी लेकिन मौजूदा दौर में सिर्फ कुर्सी के लिए राजनीति हो रही है। बदलते वक्त के साथ राजनीति के मायने भी बदल चुके हैं। अब जोड़तोड़ कर अपनी कुर्सी बचाने के प्रयास किए जाते है और राजनीति का देशप्रेम से कोई सरोकार नहीं रहा। यह मनाना है 82 वर्षीय वरिष्ठ नागरिक व सेवानिवृत्त शिक्षक रघुवीरसिंह गहलोत का।
वैशालीनगर अलखनन्दा कॉलोनी निवासी गहलोत ने ग्यारह साल की उम्र में 15 अगस्त 1947 को आजादी की सुबह देखी थी। तब उनके लिए आजादी के मायने सिर्फ सीनियर इंस्टीट्यूट के सामने से भारतीयों का गुजरना था। उन्होंने बताया कि आजादी से पहले रेलवे में सीनियर व जूनियर दो इंस्टीट्यूट होते थे। सीनियर इंस्टीट्यूट में सिर्फ ब्रिटिशर्स और एंग्लो इंडियंस को जाने की अनुमति थी जबकि भारतीय के लिए जूनियर इंस्टीट्यूट था। ब्रिटिशर्स की मौजूदगी में सीनियर इंस्टीट्यूट के सामने से भारतीय का गुजरना भी प्रतिबंधित था।
झेलनी पड़ी थी नाराजगी
मूलत: धौलपुर के बाड़ी निवासी रघुवीरसिंह ने बताया कि वे 1936 में अजमेर आए। पिता किशनसिंह गहलोत बीवीएनसीआर (बॉम्बे-ृबड़ौदा एण्ड सेन्ट्रल रेलवे) में फर्स्ट ग्रेड मेल चालक थे। बांदीकुई जूनियर इंस्टीट्यूट में गिल्ली-डंडा खेलने के दौरान गिल्ली सीनियर इंस्टीट्यूट में जाने पर उन्हें यहां बॉल एण्ड ग्रीन खेल रहे ब्रिटिशर्स की नाराजगी झेलनी पड़ी थी। इंस्टीट्यूट की तर्ज पर ही दो प्रकार की शॉप होती थी। जहां एक शॉप पर सिर्फ ब्रिटिशर्स जा सकते थे। यहां तक कि जिस राह से वो गुजरते थे उस रास्ते से भारतीयों के गुजरने पर पाबंदी थी। उनके खेल मैदान, क्लब में जाने की अनुमति नहीं थी।
भारतीयों का राज बाजारगहलोत बताते हैं कि अंग्रेजी हुकूमत के दौर में अंग्रेज बाजार और राज बाजार थे। अंग्रेज बाजार में सिर्फ अंग्रेज ही जा सकते थे जबकि राज बाजार सबके लिए था। दोनों बाजार में सामग्री एक सी थी लेकिन वस्तुओं की दर में अन्दर होता था। उनको ब्रिटिशर्स से दूर रहने की हिदायत दी जाती थी। यही डर होता था कि सामने जाने पर अंग्रेज मारपीट करते थे।
पदीय अनुशासन समाप्त
गहलोत ने बताया कि पहले पद का अनुशासन था अब यह अनुशासन नहीं रहा। इसको यूं समझ सकते है कि स्कूल में कोई भी अधिकारी आते थे तो वो प्रधानाध्यापक की कुर्सी पर नहीं बैठते थे। कुर्सी अलग रखकर ही बैठते थे। यह पद का अनुशासन था लेकिन अब सब खत्म हो गया।
बदल गए मूल्य और संस्कार
गहलोत का कहना है कि संस्कार व मूल्यों में काफी बदलाव आ चुका है। फिल्म और मोबाइल फोन ने बच्चों में संस्कार खत्म कर दिए है। अब माता-पिता बच्चों से डरने लगे है। यह बच्चों में संस्कारों में कमी की भी मुख्य वजह है। बच्चों में लगातार अवसाद बढ़ रहा है लेकिन एक समय था जब शिक्षक व विद्यार्थियों में गुरु-शिष्य परम्परा होती थी।
Source: Education