आपातकाल ने बहुत कुछ सिखाया… लोकतंत्र हुआ मजबूत : तिवाड़ी
जयपुर। शैलेन्द्र अग्रवाल. आपातकाल के समय 26 साल का था, आपातकाल में बहुत कुछ सहा, लेकिन तब के हालात के बाद देश में लोकतंत्र मजबूत हुआ।
आपातकाल कैसे लागू हुआ, इसकी भूमिका कैसे बनी?
बिहार में भ्रष्टाचार व अराजकता के खिलाफ आंदोलन चल रहा था। गुजरात में चिमनभाई पटेल के मुख्यमंत्रित्वकाल में भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन हुआ। बाद में पटेल को पद से हटा दिया। उधर, जयप्रकाश नारायण पर लाठियां पड़ने से बिहार में आंदोलन तेज हो गया। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने आह्वान किया…समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध। मैं युवा था, सीकर में आंदोलन में कूद पड़ा।
दरअसल, 12 जून, 1975 को इलाहाबाद में जस्टिस जगमोहन सक्सेना ने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का चुनाव अवैध घोषित कर दिया। यह खबर जैसे ही इंदिरा गांधी तक पहुंची, खलबली मच गई। इलाहाबाद हाईकोर्ट के आदेश पर सुप्रीम कोर्ट ने भी पूरी तरह रोक नहीं लगाई। आंदोलन तेज हो गया। दिल्ली के रामलीला मैदान में रैली हुई, जिसमें अटलबिहारी वाजपेयी, जॉर्ज फर्नांडीस की मौजूदगी में जयप्रकाश नारायण ने तीन बातें कहीं, भ्रष्टाचार समाप्त करो, पूर्ण क्रांति व असंवैधानिक सरकार के आदेश मत मानो। आखिर 25 जून की रात्रि साढ़े ग्यारह बजे तत्कालीन राष्ट्रपति फखरूद्दीन अली अहमद की मंजूरी मिलते ही आपातकाल लागू होने से पूरा देश जेल में बदल गया। रात 12 से चार बजे के बीच एक लाख लोगों को बंदी बना लिया गया। रेडियो पर खबर पता नहीं चली, तत्कालीन एसपी मोहनसिंह ने बुलाकर मुझे गिरफ्तार कर केंद्रीय जेल भेज दिया। इतना ही नहीं भैरोंसिंह शेखावत समेत राजस्थान के तमाम विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया गया।
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उस समय की कोई रोचक घटना और आगे क्या देखा?
मेरे घर पुलिस पहुंची तो मैं पीछे से कूदकर बाहर निकल गया। सुरक्षा को खतरा बताते हुए मुझे डीआईआर में बंद किया गया। खौफ इतना था कि स्टेशन पर चाय वाले ने चाय देने से मना कर दिया। कोर्ट पहुंचे तो वकील कोर्ट छोड़कर चले गए। मैंने अपनी पैरवी खुद की। मैंने कहा, आरएसएस से प्रतिबंध हटाओ… कहना क्या अपराध है। सीजेएम का धन्यवाद कि उन्होंने डिस्चार्ज कर रिहा कर दिया। रात को श्मशान चला गया, जहां मोहनलाल सैनी व छीतरमल सैनी जो बस चलाते थे, उन्होंने मुझे मेरे ननिहाल छोड़ा। रेल से जोधपुर गया। वहां हाईकोर्ट रजिस्ट्रार प्यारेमोहन बगरट्टा के घर गया, उनके पिता स्वतंत्रता सैनानी थे, उन्होंने मुझे खाना खिलाकर ट्रक में बैठा दिया और वहां से अहमदाबाद चला गया। उसके बाद भूमिगत रहकर काम किया। उसी दौरान झुंझुनूं में एक मामले में पेशी पर गया। वहां कोतवाल व पुलिस कोर्ट से घसीटते हुए ले गई। बर्बरता की गई मुझे बेहोशी की हालत में रेल के डिब्बे में डाल दिया गया। उसके बाद सीकर में अस्पताल में भर्ती कराया गया। गुमानमल लोढ़ा ने इस घटना का मार्च, 1977 में विधानसभा में और फिर अपनी पुस्तक में जिक्र भी किया। उन्हीं दिनों हमने एमएलए क्वॉर्टर में एक बैठक की। केवल राजस्थान पत्रिका ने ही इस बैठक की खबर दी। बाद में 1977 के चुनाव के समय एक रात बड़ी चौपड़ पर सभा हुई, वहां लोगों से पैसा देने का आह्वान किया तो 50 हजार रुपए जमा हो गए।
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हर गलती से कुछ सीखते हैं, आपातकाल से देश ने क्या सीखा?
लोकतंत्र को मजबूत कर दिया। अब कोई पद का दुरुपयोग नहीं कर सकता। सरकारें भंग करने पर उसकी न्यायिक विवेचना होती है। सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठता से सीजेआई बनाया जाने लगा, जिससे न्यायपालिका की स्वतंत्रता कायम हुई। कुल मिलाकर लोकतंत्र मजबूत हुआ।
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