सचमुच वे बहुत महान हैं उर्मिला, बहुत महान!
भोपाल। सुमंत युवराज राम के न लौटने का समाचार दे कर चले गए थे। अयोध्या का वह निष्ठावान प्रधानमंत्री जानता था कि इस घोर विपत्तिकाल में उसे अपने साथ-साथ महाराज के दायित्वों का भी निर्वहन करना है। उस महाविद्वान व्यक्ति को यह ज्ञात था कि यदि मंत्री पूरी निष्ठा के साथ अपने कर्तव्यों पर डटा रहे तो राष्ट्र बड़ी से बड़ी महामारी से भी सुरक्षित निकल आता है।
महाराज के कक्ष में उनके साथ उनकी दो पत्नियां और तीनों पुत्रवधुएं थीं। कैकई के हृदय में उत्पन्न हुए लोभ ने अनायास ही उन्हें शेष परिवार से अलग कर दिया था। मनुष्य समझ नहीं पाता, पर उसका लोभ सबसे पहले उन्हें अपनों से ही दूर करता है।
राम सिया और लक्ष्मण के वन गमन का दुख उनके हृदय को भी चीर रहा था, पर अतिविह्वल महाराज को देख कर उन्होंने अपनी आंखों को समझा लिया था। सभी मिल कर महाराज को सांत्वना दे रहे थे। कौशल्या बार बार कह रही थीं- ‘आपके दो पुत्र तो अब भी आपके साथ हैं महाराज! आप की तीन बहुएं आपके साथ हैं। संभालिए स्वयं को और संभालिए इस राज्य को!’
महाराज ने एक बार सिर उठा कर उनकी ओर देखा, फिर सिर झुका लिया। जैसे कह रहे हों- मुझे न स्वयं की चिंता है न अयोध्या की। मुझे तो केवल और केवल अपने राम की चिंता है।
सुमित्रा उनके भाव समझ गईं। कहा, ‘राम और लक्ष्मण की व्यर्थ चिंता न कीजिए महाराज, इस संसार की कोई भी शक्ति उनका अहित नहीं कर सकती। जो अपने एक बाण से ताड़का जैसी राक्षसी का अंत कर सकता है उसे कैसा भय? उनकी ओर से आप निश्चिंत रहें।’
दशरथ की आंखों से लगातार अश्रु बह रहे थे। वे अब भी भूमि पर ही पड़े हुए थे। उन्होंने कौशल्या की बात पर कोई उत्तर नहीं दिया। कक्ष में फिर शांति पसर गई। माता के षड्यंत्र से आहत माण्डवी अपराधबोध से दबी चुपचाप सिर झुकाए बैठी थीं। बोलीं उर्मिला! कहा, ‘नियति ने हम सभी के भाग्य में वियोग ही दिया है पिताश्री! पर वे लोग जिन्होंने राज का सुख छोड़ कर वनवास की पीड़ा चुनी है, हमें उनके तप का तो सम्मान करना होगा न! उठिए महाराज, आप उन महान पुत्रों के पिता हैं जिन्होंने आपकी प्रतिष्ठा के लिए क्षण भर में ही अपने सारे अधिकार त्याग दिए। उठिए और संभालिए अयोध्या को, ताकि चौदह वर्ष बाद जब वे लौटे तो हम कह सकें कि हमने तुम्हारी थाती संभाल कर रखी है। हम कह सकें कि, देखिए! आपकी अयोध्या उतनी ही सुंदर है, जैसी आप छोड़ गए थे। उठिए पिताश्री! यह हमें ही करना होगा।’
दशरथ अब बोले! कहा, ‘उसने स्वयं को बहुत बड़ा सिद्ध कर दिया पुत्री! उसने पिता के सम्मान के लिए बिना कोई प्रश्न किए वनवास स्वीकार कर लिया। वह गया तो उसकी पत्नी भी दुख भोगने चुपचाप चली गई। साथ ही लक्ष्मण भी बड़े भाई की सेवा के लिए चला गया। सचमुच वे बहुत महान हैं उर्मिला, बहुत महान! वह युग-युगांतर तक इस सभ्यता का महानायक होगा! पर सोचो, मैं तो उनका पिता हूं न? मेरा भी तो उनके प्रति कुछ दायित्व बनता है?’
उर्मिला आश्चर्य से उनकी ओर देखने लगीं। दशरथ के मुख पर मुस्कान तैर उठी। बोले, ‘उसने मेरी प्रतिष्ठा के लिए राज्य का त्याग किया है, क्या मैं उसकी प्रतिष्ठा के लिए प्राण भी नहीं त्याग सकता? मुझे मरना होगा उर्मिला! दशरथ को पुरुषोत्तम राम के पिता होने की मर्यादा निभानी ही होगी। वे मेरे प्रेम में वन गए, मैं उनके प्रेम में स्वर्ग जाऊंगा। मेरे दिन पूरे हुए महारानी कौशल्या, अब मुझे चलना होगा।’
सभी घबरा उठे, पर दशरथ के मुख पर अब संतोष था। कहने लगे- ‘भयभीत मत होओ! मेरा पुत्र सृष्टि के अंत तक देवता के रूप में पूजा जाएगा। उसकी तपस्या व्यर्थ नहीं जाएगी, संसार उससे प्रेरणा लेगा और जीवन के गुण सीखेगा। वह नर नहीं है, नारायण है। पर मुझे अब चलना होगा… राम के युग में दशरथ की कथा यहीं समाप्त होती है।’
स्त्रियां चीख उठीं, पर दशरथ की विह्वलता समाप्त हो गई थी। वे अब उन्हें सांत्वना दे रहे थे।
क्रमश:-
Source: Dharma & Karma