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COPD: फेफड़ों की नलियां सिकुड़ने से घटने लगती है कार्य क्षमता, इस तरह करें बचाव

क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज (सीओपीडी) एक बीमारी नहीं है बल्कि बीमारियों का समूह है। इसमें सांस नली सिकुड़ने से सूजन आ जाती है। इस कारण फेफड़े भी डैमेज होने लगते हैं जिसे एम्फायसेमा कहते हैं। यह बीमारी सांस में रुकावट से शुरू होती है और धीरे-धीरे सांस लेना मुश्किल हो जाता है। यह स्मोकिंग और स्मोकिंग न करने वाले दोनों में होने वाली बीमारी है। बीमारी गंभीर होने पर हार्ट व किडनी आदि दूसरे अंगों को भी नुकसान पहुंचा सकती है।
सीओपीडी के लक्षण आमतौर पर 30 वर्ष की उम्र के बाद दिखते हैं क्योंकि 15-20 वर्ष बाद ही युवा स्मोकिंग या कोई काम शुरू करते हैं। इसके 10 साल बाद उसका दुष्प्रभाव दिखता है। शुरू में सर्दी के मौसम में खांसी, बलगम आता है। इसके बाद अक्सर सर्दी-जुकाम की समस्या रहती है। तीव्रता बढऩे पर सांस उखड़ती है।
नॉन स्मोकर भी मरीज
धूम्रपान करने वाले में सबसे अधिक खतरा रहता है। धुएं से यह बीमारी अधिक होती है। लेकिन 40त्न ऐसे मरीज हैं जो स्मोकिंग नहीं करते हैं। धूम्रपान करने वाला अस्थमा का रोगी है तो उसमें खतरा अधिक रहता है। घर के अंदर और बाहरी वायु प्रदूषण भी बड़ा कारण है। गांवों में चूल्हों पर खाना बनाने वाली महिलाओं को खतरा रहता है। ऐसे व्यापार जहां धूल, धुंए और कैमिकल की गंध अधिक होती है। इससे भी खतरा रहता है।
इस तरह करते पहचान
स्पाइरोमेट्री से फेफड़ों की ताकत जांची जाती हैं जबकि ब्लड या बलगम टेस्ट के साथ छाती में संक्रमण का पता लगाने के लिए एक्स-रे करते हैं। जरूरत पडऩे पर सीटी स्कैन या एमआरआइ जांच भी कराते हैं।
घटती है कार्य क्षमता
इसमें फेफड़ों को नुकसान होता है। सीना चौड़ा होता है लेकिन फेफड़ों की क्षमता घट जाती है। फेफड़ों में खाली हवा भर जाती है। इससे अंगूर जैसा गुच्छा अंदर बनने लगता है।
इनका रखें ध्यान
इनका रखें ध्यान
धूम्रपान करने वाले 4 में से एक व्यक्ति को सीओपीडी होता है। धूम्रपान छोड़ दें। घर में कीटनाशक का छिडक़ाव या रंग का काम चल रहा है तो दूर रहें। प्रदूषित क्षेत्रों में जाने से बचें। किचन के धुएं और मसालों की गंध से बचें। सांस लेने वाले व्यायाम नियमित करें। इसमें सांस नाक से लें और धीरे-धीरे मुंह से छोड़ते हैं। रोजाना 30-40 मिनट की वॉक जरूर करें।
इस तरह होता है बचाव
इसमें फेफड़ों की क्षमता घटती है इसको ठीक करने के लिए इन्हेलर का इस्तेमाल किया जाता है। फेफड़ों में संक्रमण भी अधिक होता है। इसलिए निमोनिया और फ्लू का रेस्परेटरी वैक्सीन लगाई जाती है। इसमें पूरा फेफड़ा काम नहीं करता है तो शरीर में ऑक्सीजन की कमी होती है। इसके लिए बीच-बीच में ऑक्सीजन दी जाती है। इसके अलावा जब लंग अटैक मेंं इन्हेलर काम नहीं करता है तो मरीज को कृत्रिम सांस देते हैं। खराब फेफड़ों को बुलाक्टमी में काटकर भी इलाज किया जाता है। यह सुविधा अपने देश में भी है। जरूरत के अनुसार हार्ट की तरह लंग्स में भी स्टेंट डालकर इलाज किया जाता है।
प्रोटीन डाइट अधिक
रोगियों को पौष्टिक एवं संतुलित आहार लेना चाहिए। इनमें एंटी-बायोटिक, एंटीइंफ्लामेटरी एवं एंटी-ऑक्सीडेंट्स गुण वाली चीजें खाएं। वजन बढऩे से परेशानी बढ़ती है। ऐसे में हाई प्रोटीन व लो कैलोरी वाली चीजें ही खानी चाहिए। जिनका वजन अधिक है वे लो कैलोरी डाइट लें।
कार्ब डाइट से दिक्कत
फेफड़ों की बीमारी में मरीज को अधिक काब्र्स वाली डाइट देने से समस्या बढ़ती है। मेटाबॉलिज्म के दौरान कार्बोहाइड्रेट फैट की तुलना में अधिक मात्रा में कार्बन डाइऑक्साइड प्रोड्यूस करता है। इसलिए चीनी, चावल, मैदा आदि चीजों का परहेज। ज्यादा मीठा खाने से बचें।
विटामिन सी
लोगों में भ्रम है कि खट्टी चीजें खाने से जुकाम की समस्या बढ़ जाएगी। जोकि गलत है। सिट्रस फ्रूट्स जैसे नींबू, संतरा, कीनू, अन्नानास आदि खाने से सर्दी कम लगती है। संक्रमण कम होता है। भरपूर मात्रा में दूध और पनीर ले सकते हैं।
ताजे फल
इनमें फाइटोन्यूट्रिएंट्स एवं एंटी-ऑक्सीडेंट अधिक होते हैं, जो फेफड़ों के अंदरूनी मसल्स को स्वस्थ रखते हैं और अंदर के नुकसानदायक पदार्थों को बाहर निकालते हैं। इसलिए हर मौसम के ताजे फलों एवं सब्जियों को भरपूर मात्रा में डाइट में शामिल करें।
डॉ. सूर्यकांत, वरिष्ठ सांस रोग विशेषज्ञ और विभागाध्यक्ष, श्वसन रोग विभाग केजीएमयू लखनऊ एवं राष्ट्रीय अध्यक्ष, नेशनल कॉलेज ऑफ चेस्ट फिजिशियन्स

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Source: Health