विचार मंथन : सत्य को केवल बुद्धि के द्वारा जानने से ही काम नहीं चलेगा वरन उसके लिए आंतरिक अनुराग होना चाहिए- आचार्य श्रीराम शर्मा
मनुष्य इस चिर-दुर्लभ मानव-जीवन को पाकर छोटे-छोटे कर्म फलों के लिये लालायित रहता है, जिस कारण वह परमात्मा के साक्षात्कार जैसे परमलाभ से वंचित रह जाता है। प्रत्येक कर्म को परमात्मा का समझकर करने और उसके फल को भी उसका समझ लेने में मनुष्य का अपना कुछ बिगड़ता नहीं, तब न जाने वह क्यों कर्माभिमानी बनकर अनमोल मानव-जीवन का दुरुपयोग किया करता है?
मनुष्य जीवन एक बहुमूल्य अवसर है, यह बार-बार नहीं आता। मनुष्य जीवन एक ऐसा अवसर है, जिसका सदुपयोग करके कोई भी सच्चिदानन्द परमात्मा को पा सकता है। तुच्छ शारीरिक भोगों की तुलना में जो सर्वसुख रुप परमात्मा के साक्षात्कार और परामद मोक्ष की उपेक्षा करता है, जो चिन्तामणि को गुंजा फल के लोभ में त्याग देता है। सर्वांगीण मनुष्यत्व की साधना के लिए शरीर, वाक् और मन से सत्य को ग्रहण करना होगा। सत्य को केवल बुद्धि के द्वारा जानने से ही काम नहीं चलेगा वरन उसके लिए आंतरिक अनुराग होना चाहिए और उसका आश्रय ग्रहण करके परम आनन्द प्राप्त करना चाहिए।
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स्वयं शान्ति से रहना और दूसरों को शान्ति से रहने देना यही जीवन जीने की सर्वोत्तम नीति है। दूसरों के साथ वह व्यवहार न करें जो हमें अपने लिये पसन्द नहीं। सत्य ही बोलना चाहिए। सभी से प्रेम करना चाहिए और अन्याय के मार्ग पर एक कदम भी नहीं धरना चाहिए। श्रेष्ठ, सदाचारी और परमार्थयुक्त जीवन ही मनुष्य की उपयुक्त बुद्धिमत्ता कही जा सकती है।
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धर्म का तात्पर्य है- सदाचरण, सज्जनता, संयम, न्याय, करुणा और सेवा। मानव प्रवृत्ति में इन सत्तत्त्वों को समाविष्ट बनाये रखने के लिये धर्म मान्यताओं को मजबूती से पकडे़ रहना पड़ता है। मनुष्य-जाति की प्रगति उसकी इसी प्रवृत्ति के कारण संभव हो सकी है। यदि व्यक्ति अधार्मिक, अनैतिक एवं उद्धत मान्यताएं अपना ले तो उसका ही नहीं समाज का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा।
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Source: Religion and Spirituality