लघुकथा-हैसियत
वीना करमचन्दाणी
शहर में शादियों की धूम मची थी। जहां चार आदमी इकट्ठे हुए शादियों की चर्चा शुरू।
एक दिन दफ्तर में चाय के समय वर्मा जी ने कहा, कल तो जेब अच्छी खासी हल्की हो गई। चार शादियों में जाना था,खाना तो एक जगह ही खाया मगर लिफाफा सब जगह देना पड़ा। अब दो सौ इक्यावन से कम का लिफाफा किसी को क्या दो? शर्मा जी ने जोश में आते हुए कहा- आजकल कम से कम पांच सौ का लिफाफा तो बनाना पड़ता है।
राठी साहब ने लंबी सांस लेते हुए कहा-वो तो ठीक है पर ऊंची हैसियत वालों के यहां तो लिफाफे का वजन भी बढ़ाना पड़ता है फिर अपनी औकात चाहे कुछ भी हो। राठी साहब की बात पर उन दोनों ने भी सहमति जताई। तभी स्टाफ के दो तीन सहायक कर्मचारी कमरे में आए। उनमें से एक ने कहा-साहब, नंद किशोर जो डायरेक्टर साहब के यहा लगा हुआ है, आज उसकी बेटी की शादी है। आप कन्यादान भिजवाना चाहें तो …।
तीनों ने एक दूसरे को प्रश्नवाचक निगाहों से देखा। राठी साहब ने कहा- हमारी तरफ से इक्यावन इक्यावन रुपए लिख लो।
उनके बाहर जाते ही राठी साहब ने कहा- देखा सबको सस्ते में निपटवा दिया, साग पूड़ी वाली शादी में इतना ही खर्चा होता है।
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बातों का जाल
तारावती सैनी ‘नीरज’
कल सविता को लड़की हुई वह बहुत खुश थी। बेटी होने से अब उसका परिवार पूरा हो गया था। एक बगल वाली आंटी सविता की बेटी के हाथ पर शगुन और बधाई देने आई और सविता से बोली-अरे इस बार भी लड़का हो जाता तो और भी अच्छा होता। लड़की की पचास जिम्मेदारियां होती हैं सिर पर और पचास बातों का ख्याल रखना पड़ता है। कोई बात नहीं मैं चलती हूं। कुछ दिनों बाद सविता की जेठानी को लड़का हुआ। वही आंटी फिर सविता की जेठानी को बधाइयां और शगुन देने आई।
और उससे बोली-सविता के तो दोनों हाथ लड्डू से भर गए। कितना अच्छा होता तुम्हें भी इस बार लड़की हो जाती तो लड़का तो था ही तुम्हारे पास। एक बात बता दूं, दो लड़कों की मां दर-दर की ठोकरें खाती हंै। उसको सुख की रोटियां नसीब नहीं होती। कोई बात नहीं मैं चलती हूं।
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