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पंच पशु : मानव सबसे विकसित

Gulab Kothari Article Human most developed among five animals : ईश्वरीय सृष्टि में जो स्थान हमारा है, मानव जाति का है, वही स्थान अन्य सभी पार्थिव प्राणियों का भी है। चेतना सबमें विद्यमान हैं किन्तु सभी प्राणियों में से मनुष्य का विकास अधिक है, इन्द्रियां विकसित हैं। मनुष्य का आत्मिक विकास भी अधिक है। अत: सम्पूर्ण विश्व के अभ्युदय का बोझ भी उसी पर रहता है। किसी भी राष्ट्र के विकास की पहली आवश्यकता है मनुष्य का स्वस्थ-सुरक्षित रहना। पशु-पक्षी, पेड़-पौधे, पहाड़-नदियां भी तभी सुरक्षित रहते हैं। शास्त्र ऐसे अनेक कार्यों का निर्देश करते हैं, जो मानव की समृद्धि के लिए आवश्यक है। इनमें ही यज्ञों में पशुबलि के विधान भी शामिल हैं। इस कारण संस्कृति पर आक्षेप भी बहुत हैं।

प्रश्न यह है कि क्या पशु और बलि की परिभाषा को हम समझ रहे हैं। जो शास्त्र-‘‘मा हिंस्यात्-सर्वाभूतानि’ (किसी प्राणी को दु:ख मत दो) का निर्देश देता है, वही यह विपरीत निर्देश कैसे दे सकता है! हमें इस व्यवस्था को समझना होगा। पशु के स्वरूप को समझना भी उचित होगा। वेद में स्थूल रूप से पांच पशु माने गए हैं—पुरुष, अश्व, गौ, अज और अवि। ये पांचों ही पशु प्राणस्वरूप हैं। वस्तुत: जिस तत्त्व पर आत्म प्रजापति भोग्य रूप से दृष्टि रखता है, वही पशु कहलाता है। पृथ्वी के मुख्य प्राण भी पशु प्राण हैं अत: सभी पार्थिव प्राण भी पशु कहे जाते हैं।

पृथ्वी, अन्तरिक्ष और द्यु तीनों लोकों के रसों के तारतम्य से ही इन पशुओं का स्वरूप बनता है। पृथ्वी और सूर्य के बीच अग्नि तीन स्वरूपों में रहता है—घन, तरल और विरल। ये तीनों क्रमश: अग्नि, वायु, आदित्य तथा वसु, रुद्र, आदित्य भी कहलाते हैं।

इनके सम्मिलित स्वरूप को वैश्वानर कहते हैं। वैश्वानर तत्त्व ही पुरुष पशु है। वह पुरुष पशु अग्नि प्रधान है। वृषा है। मानव प्राकृतिक पुरुष पशु की प्रतिकृति है। अन्य पशुओं की अपेक्षा इसमें ज्ञान-क्रिया-अर्थ का पूर्ण विकास है।

अश्व पशु की व्याप्ति सूर्य से पृथ्वी तक समस्त रोदसी त्रिलोकी में रहती है। सूर्य का सावित्र तेज (सावित्री) भूपिण्ड की ओर आता है। भूपिण्ड से टकराकर यह सौर तेज अन्तरिक्ष के अप् तत्त्व से युक्त होकर पुन: सूर्य की ओर जाता है। यही अश्व कहलाता है।

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इसमें तीनों लोकों—पृथ्वी, अन्तरिक्ष और द्यु के प्राणों का समावेश हो जाता है। सूर्य किरणों के घर्षण से उत्पन्न पानी, मरीचि कहा जाता है। अन्तरिक्ष के अप् तत्त्व की प्रतिष्ठा यही मरीचि तत्त्व है। अत: अश्व सौर पशु माना जाता है। अन्तरिक्ष के अप् तत्त्व से इसका शरीर निर्मित होता है।

चूंकि अप् ऋत है, अत: अश्व शरीर की प्रतिष्ठा भी सत्य रूप में नहीं होती। पृथ्वी के प्राणियों में अश्व प्राण से युक्त पशु को अश्व कहते हैं। यह अश्व पशु जब भी खड़ा होगा, एक पैर भूपिण्ड पर बिना टिकाए हुए ही रखेगा। यही इसके ऋत भाव का सू चक है।

गौतत्त्व का उत्पत्ति स्थान परमेष्ठी लोक है, इसका विकास सूर्य में होता है और यह सम्पूर्ण त्रिलोकी में व्याप्त रहता है। सम्पूर्ण भूत, भौतिक यज्ञ गौतत्त्व पर ही प्रतिष्ठित हैं। भूतों की जननी सोममयी गौ है। परमेष्ठी सोमलोक है। प्रजापति (मन-प्राण-वाङ्मय) के प्राण भाग से गौतत्त्व पैदा होता है।

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सौम्य प्राण ही गौतत्त्व का आत्मा है। सौर अग्नि गौ का शरीर है। यही अमृत की आग्नेयी नाभि है। सूर्य सहस्ररश्मि है। अत: गौतत्त्व भी सहस्रधा विभक्त हो जाता है। गौ के 333-333 रूप अग्नि-वायु-आदित्य के साथ युक्त रहते हैं। एक कामधेनु बचती है। यह भी तीनों से युक्त रहती है।

परमेष्ठी में भृगु (सोम) तथा अंगिरा (अग्नि) तत्त्व पैदा होते हैं। भृगु के अप्-वायु-सोम तीन रूप हैं। सोम गौ का जनक होता है। अंगिरा के अग्नि-यम-आदित्य तीन स्वरूप होते हैं। अंगिरा ही आदित्य का जनक है। अर्थात् आदित्य एवं गौ दोनों का ही जनक परमेष्ठी लोक है।

अन्तरिक्ष का रुद्र प्राण भी गौ प्राण से उत्पन्न होता है। चूंकि प्राण ऋत तत्त्व है, अत: रुद्र प्राण भी ऋत है। परमेष्ठी का गौ प्राण ही ऋत का प्रथम रूप है। अत: गौ प्राण को रुद्रों की माता कहा गया है। गौ तत्त्व के स्थूल भाग का निर्माण पार्थिव वागाग्नि पर निर्भर करता है। प्राकृतिक गौ प्राण (पशु) से ही पार्थिव गौ पशु का निर्माण होता है।

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अन्तरिक्ष के आपो भाग से अवि (भेड़) पशु सम्बन्ध रखता है। वृष्टि का मूल है दिक् सोम। आदित्याग्नि में श्रद्धा की आहुति से सोम उत्पन्न होता है। ऋत और सत्य, सोम दो प्रकार का है। चन्द्रमा सत्य सोम है। चन्द्रमा का प्रकाश सूर्य का ही प्रकाश है। कुछ सोम (ऋत) इधर-उधर आकाश में व्याप्त हो जाता है।

यही सोम वायु द्वारा पर्जन्य अग्नि में आहूत होकर वृष्टि का हेतु बनता है। इस दिक् सोम से ही हमारी श्रोत्रेन्द्रिय का निर्माण होता है। वर्षा से उत्पन्न हरियाली अवि प्राण के कारण होती है। अवि प्राण अन्तरिक्ष प्राण है तथा इसका सम्बन्ध पृथ्वी से ही रहता है। पृथ्वी के अज पशु के साथ अवि प्राण का सहयोग बताया जाता है।

अज (बकरा) पशु पृथ्वी का पशु है, अग्नि प्रधान है। पृथ्वी की अग्नि का जो *प्रवर्ग्य भाग है वही अज पशु का *उपादान कारण है। औषधि वनस्पतियां भी इसी के प्रवर्ग्य से उत्पन्न होती हैं। अत: अज पशु और औषधि वनस्पतियां दोनों ही अन्न रूप में काम आते हैं। दोनों ही क्षीण भी नहीं होते।

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प्रजापति संवत्सर में तीन प्रसव करता है। अज भी एक वर्ष में तीन बार संतति पैदा करता है। जिस प्रकार प्रजापति के प्राण भाग से गो पशु उत्पन्न होता है, वैसे ही वाक् भाग से अज पशु उत्पन्न होते हैं। वाक् का स्थूल रूप अग्नि ही है। वही रस है। रस के *ब्रह्मौदन से अग्नि-वायु-आदित्य रूप देव सृष्टि होती है। जो प्रवर्ग्य भूपिण्ड से युक्त होता है, वह अज पशु का उपादान बनता है। इसी अज प्राण की जिस प्राणी पशु में प्रधानता होती है, उसे ही अज कहा जाता है।

इस प्रकार पांचों प्राण पशुओं से पांच प्राणी पशु उत्पन्न होते हैं। जो रोदसी त्रिलोकी के अंग हैं। इसमें अग्नि-वायु-आदित्य तीन अग्नियां तथा दो संधियां हैं। यही अग्नि की पांच चितियां हैं। अत: संवत्सर यज्ञ पांक्त (पंच अवयव) कहा जाता है। यही पंच चितिक अग्नि विस्रस्त (फैला हुआ) होकर पार्थिव उषा में आहूत होता है।

पार्थिव उषा योनि है। सम्वत्सर अग्नि रेत है। इसकी आहुति से कुमार अग्नि उत्पन्न होता है। पृथ्वी की एक परिक्रमा में कुमाराग्नि का स्वरूप निष्पन्न होता है। व्यष्टि रूप में इसे चित्राग्नि कहा जाता है। अन्त में यही पंच पशु रूप में परिणत होता है। संवत्सर अग्नि को प्रजापति ने इन पशुओं में ही प्राप्त किया- जो उसका ही स्वरूप है।

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अर्थात् प्रजापति ने अपने ही स्वरूप को देखा। अपश्यत् तस्मात् पशवरू। यह अग्नि ही पशु नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसका अर्थ स्पष्ट है कि प्रजापति के इस अग्नि भाग (प्रवर्ग्य) से ही हम सब उत्पन्न होते हैं। इस कर्म में प्रजापति के स्वरूप में कमी आती है। इस कमी को पूरा करने के लिए प्रजापति पुनरू हमारी अग्नि प्राप्त करते हैं।

इस अग्नि की संवत्सराग्नि में *चिति होती है। प्रजापति के क्षीण भाग की पूर्ति हो जाती है। यह प्रकृति का आदान विसर्ग रूप पूरक क्रम है। हम उसके अग्नि भाग को लेकर पैदा हुए हैं, वहीं उसी से जीवित भी हैं। वह भी हमें खाकर अपने स्वरूप को प्रतिष्ठित रखता है। इसी भोग्य-भोक्ता स्वरूप को गीता स्पष्ट करती है—

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व:।
परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ।। (3.11)
यज्ञ के द्वारा तुम देवताओं को उन्नत करो और वे तुम लोगों को उन्नत करें। इस प्रकार एक-दूसरे को उन्नत करते हुए तुम लोग कल्याण को प्राप्त हो।

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*प्रवर्ग्य : उच्छिष्ट या बचा हुआ।
*उपादान : आरंभ का कारण।
*चिति : चिनाई।
*ब्रह्मौदन : मूल तत्त्व या इकाई

क्रमश:
gulabkothari@epatrika.com



Source: Education