टॉरेट सिंड्रोम से पीड़ित बच्चे अचानक अजीब आवाजें निकालने लगते हैं
बार-बार किसी तरह की अनियंत्रित मसल्स एक्टिविटी होना या मुंह, गले व नाक से किसी तरह की आवाज निकालना टॉरेट सिंड्रोम के लक्षण होते हैं। इससे ज्यादातर लोग अनजान हैं, क्योंकि इसके लक्षण संबंधित व्यक्ति की आदत के तौर पर दिखाई देते हैं। यह सिंड्रोम बच्चों को 2 से 14 साल की उम्र में होता है, जो पूरी उम्र रहता है। इसका पूर्ण इलाज तो नहीं किया जा सकता लेकिन इसे नियंत्रित कर सकते हैं। इसलिए पेरेंट्स बच्चों के चलने, उठने, समझने, बोलने आदि के तौर तरीकों पर गौर करें और इनमें किसी भी तरह की असमानता लगने पर डॉक्टरी सलाह लें।
यह है बीमारी –
यह एक न्यूरोसाइकाइट्रिक डिसऑर्डर है जिसमें तंत्रिकातंत्र के सही तरह से कार्य न करने पर व्यक्ति कुछ गतिविधियों या आवाजों पर नियंत्रण नहीं रख पाता है। अचानक शब्दों को दोहराना, पलकों को झपकाना, बाहों व होठों को हिलाना, बार-बार सूंघना, अचानक आवाजें निकालना जैसी अनियंत्रित गतिविधियां होने लगती हैं, जिसे नर्वस टिक्स या टिक्स कहते हैं। इन गतिविधियों पर रोगी का नियंत्रण नहीं रहता है, जिससे न चाहते हुए भी ये हरकतें बार-बार होती हैं। इस सिंड्रोम का बौद्धिक स्तर पर कोई असर नहीं पड़ता है। लेकिन यह कई बार अन्य मनोवैज्ञानिक विकारों जैसे अटेंशन डेफिसिट हाइपरएक्टिव डिसऑर्डर, ऑब्सेसिव कंपल्सिव डिसऑर्डर आदि के साथ भी यह होता है। इससे ग्रस्त व्यक्तियों को एक जगह बैठकर काम करने और किसी चीज पर ध्यान केंद्रित करने में परेशानी होती है।
ये हैं मुख्य लक्षण –
इस सिंड्रोम का मुख्य लक्षण टिक्स है, क्योंकि यही सबसे पहले और स्पष्ट तौर पर दिखाई देता है। टिक्स दो तरह का होता है- मोटर और वोकल। मोटर टिक्स में जहां सिर या हाथ को झटका देना, पलकें झपकाना, चेहरे बनाना आदि लक्षण होते हैं, वहीं वोकल में खांसना, बार-बार सांस छोड़ते हुए आवाज निकालना, गला साफ करना आदि शामिल हैं। स्टे्रस, एक्साइटमेंट, किसी बीमारी या थकान के कारण इसके लक्षणों में और ज्यादा बढ़ोत्तरी हो जाती है। रोग से पीड़ित ज्यादातर लोगों को यह भी नहीं पता होता है कि वे इसके रोगी हैं।
प्रमुख कारण –
विशेषज्ञों के अनुसार दिमाग में डोपामाइन व सेरोटोनिन जैसे रसायनों का असंतुलन प्रमुख वजह है। आनुवांशिकी और पर्यावरणीय कारणों से भी यह सिंड्रोम होता है। यह डिसऑर्डर जीन्स के जरिए एक पीढ़ी से दूसरे पीढ़ी में पहुंच सकता है। यानी माता पिता को यह रोग हो तो आने वाली पीढ़ी में भी इसकी आशंका होती है।
ऐसे करें इलाज – कई लोगों को इस समस्या व इसके कारणों की जानकारी नहीं होती है। ऐसे में उन्हें पता नहीं होता है कि इस समस्या से पीड़ित व्यक्तियों का कैसे ख्याल रखा जाए। ज्यादातर मामलों में रोगी को शर्मिंदगी महसूस होने लगती है। ऐसे में उनकी स्थिति गंभीर हो जाती है। जरूरी है कि रोगियों का कुछ इस तरह ख्याल रखा जाए कि वे इस सिंड्रोम का सामना कर सकें, खासकर बच्चे।
टॉक थैरेपी : दवाइयों के साथ साइकोलॉजिस्ट या काउंसलर व्यक्ति को टिक्स को लेकर सामाजिक मुद्दों या लोगों का सामना करना सिखाते हैं। बिहेवियर थैरेपी भी देते हैं।
एक्सरसाइज : बिहेवियर मॉडिफिकेशन जर्नल में प्रकाशित एक शोध के अनुसार रोज एरोबिक्स व वर्कआउट करने से स्वभाव में बदलाव होकर लक्षण कम होते हैं।
खुद को व्यस्त रखें : जब बच्चे या टीनएजर्स किसी काम में व्यस्त रहते हैं तो लक्षण कम होने के साथ उनकी फ्रिक्वेंसी भी घटती है। खेल या हॉबी में व्यस्त रहें।
Source: Health