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Republic Day: संकुचित सोच से ऊपर उठें राजनीतिक दल

गिरीश्वर मिश्र
पूर्व कुलपति, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा
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भारत ने करीब सात दशक पहले अपने लिए गणतांत्रिक संसदीय शासन व्यवस्था को चुना और उसके साथ स्वयं को प्रतिबद्ध किया। एक उत्सव के रूप में गणतंत्र दिवस के आयोजन के दौरान राष्ट्रीय गरिमा की प्रतिष्ठा के संवर्धन के राष्ट्रीय प्रयासों को पहचाना जाता है और देश को आश्वस्त किया जाता है। सैन्य शक्ति के दम-खम और उपलब्धियों से अवगत कराना इस दिन के विभिन्न आयोजनों का मुख्य आकर्षण होता है। कुल मिला कर हम गण के तंत्र की कुशलता की छवि साझा करते हैं और राष्ट्रीय आत्मबोध को जगाते हैं ।

विभिन्न स्तरों पर गणतंत्र की व्यवस्था के संचालन के लिए भारतीय संविधान तैयार किया गया और आज के ही दिन संसद ने उसे अंगीकृत किया था। इस संविधान की धुरी के रूप में समता, न्याय, बंधुत्व और स्वतंत्रता के मूल्य पहचाने गए हैं । ये सभी इस भांति परस्पर जुड़े हुए हैं कि यदि एक न हो या ढीला पड़ जाए, तो शेष अन्य विकलांग हो जाएंगे। इन चारों के संतुलन का ध्यान रखने पर ही व्यक्ति और समाज का योग-क्षेम और स्वास्थ्य सुनिश्चित किया जा सकना सम्भव है।

इसलिए इन मूल्यों की सुरक्षा और देखभाल के लिए संविधान में मौलिक अधिकारों जैसे बहुत सारे प्रावधान किए गए। यह अनूठा दस्तावेज विश्व में उपलब्ध प्रमुख संविधानों से आवश्यक जानकारी और प्रक्रियाओं को समाविष्ट कर तैयार किया गया था। गौरतलब है कि इसका मूल ढांचा अंग्रेजों द्वारा भारत के लिए बनाया गया 1935 का गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट था। इस एक्ट को स्पष्ट रूप से एक साम्राज्यवादी शक्ति ने अपने उपनिवेश के लिए बनाया था, जहां उसका विरोध हो रहा था। भारत को आजाद करने का दबाव तीव्र हो रहा था। 26 जनवरी 1930 को देश में पूर्ण स्वराज्य की हुंकार भरी गई थी।

अंग्रेज शासन के दौरान भारत सभ्यतामूलक दृष्टि से बंधा रहा, न कि राष्ट्र राज्य की व्यवस्था जिसे बहुत से लोग अंग्रेजों के भारत में शासन का परिणाम मान बैठते हैं। वस्तुत: कई उत्तर उपनिवेश विचारकों की सोच में भी यह बात अब भी पैठी हुई है। यहां पर यह बात भी स्मरण रखने की है कि अंग्रेज भारतीय समाज के प्रति एक नस्लीय सोच अपनाने और शिक्षा को देशज ज्ञान से दूर या विमुख करने के अपने लक्ष्य में सफल बहुत सफल रहे थे ।

अंग्रेजों ने राष्ट्र राज्य (नेशन स्टेट) की अवधारणा और ‘विकास’ का विचार भारत पर कुछ इस तरह थोपा कि वही मुख्य आख्यान के रूप में प्रचारित होता गया। इस तरह की औपनिवेशिक चेतना अतीत न होकर आज वर्तमान संरचना और मनोवृत्ति में भी उपस्थित है। वह पश्चिम की सभ्यता के वर्चस्व की पुष्टि करती है और उससे जो भिन्न या इतर है, उसे अपनी सभ्यता को पिछड़ा मानना ही नसीब सा बन गया है। यदि विउपनिवेशीकरण (डिकॉलोनाइजेशन) की बात करनी है, तो देशज चश्मे से ही देखना होगा। एक तकनीकी दस्तावेज के रूप में संविधान की समझ सरल नहीं है। इससे आम आदमी दूर ही रहता है। दूसरी ओर राजनीति और कानूनविद इसके प्रावधानों की मनचाही व्याख्या भी करते रहते हैं।

हमारा गणतंत्र मूल रूप में एक लोककेंद्रित व्यवस्था है जिसमें सिद्धांतत: जनता ही सब कुछ या सर्वेसर्वा होती है। वह अपने मताधिकार का उपयोग करते हुए प्रतिनिधि चुनती है और व्यवस्था का दारोमदार इन्हीं चुने प्रतिनिधियों पर टिका होता है, जो बहुमत के आधार पर सरकार बनाते हैं। आज सरकार बनाने के बाद जनप्रतिनिधियों में लोक का पक्ष विस्मृत होता जा रहा है। राजनीतिक हलकों में उदारता और सहिष्णुता जैसे मूल्य संवाद और आचरण से बाहर होते जा रहे हैं। इक्कीसवीं सदी में जो वैश्विक परिस्थितियां बन रही हैं, उनको ध्यान में रख लोकतांत्रिक संस्कृति को विकसित करना आवश्यक है। राजनीतिक दलों को संकुचित सोच और स्वार्थ से ऊपर उठ कर राष्ट्रीय हित के लिए काम करना होगा।



Source: Education