CHURU NEWS- अनदेखी: इनका ना घर और ना ठिकाना…इन्हें बस चलते जाना…
दर-दर की ठोकर खाने की मजबूरी: काम की घटती मांग, रोजी-रोटी को तरसते गाडिय़ा लौहार
इनके लिए खुले आसमान के नीचे सर्दी, गर्मी, वर्षा हो या बसंत, सब एक समान
रामकुमार सिहाग
चूरू. साहवा. इनका ना घर है और ना कोई ठिकाना, इन्हें बस चलते जाना है। सरकार की अनदेखी के कारण ये लोग दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर हैं। हम बात कर रहे हैं गाडिय़ा लोहारा परिवार की। इनके बनाए औजारों और उपकरणों की घटती मांग के चलते उनका जीवन फाकाकशी के दौर से गुजर रहा है। भाड़ंग की चौपाल में आसमां के नीचे बैल गाडिय़ों के चलते फिरते घरों के पास भट्टी और अहरण लगाए बैठे रविया, भंवर लाल, मिठू आदि ने अपनी रोजी रोटी की पीड़ा सुनाई। पूर्वजों ने कहीं स्थायी घर बसाकर हमें पढाने या हमारे परंपरागत लौहारी काम के अलावा अन्य कोई काम नहीं सिखाया। अब महंगाई और बेरोजगारी इतनी बढ गई कि जमीन खरीदकर स्थायी घर बनाएं और बच्चों को पढाना हमारे बस की बात नहीं रही। मजबूरी में गांव दर गांव डेरे बदल-बदल कर घर घर आवाज लगाकर सामान के बदले दो जून की रोटी का आटा व जीवन गाड़ी खींचने वाले इन बैलों के लिए कहीं सूखा तो, कहीं हरा चारा मिन्नतें करके लाना पड़ रहा है।गर्म लोहे पर घण भारी हथौड़े की चोट से औजार का आकर दिलाने वाली कीरणा देवी ने अपने बचपन के दिनों को याद करते हुए बताया कि आज से 20 25 वर्षों पहले जहां गांवों मे लोगों के घरों में लौहारों के बनाऐ लोहे के औजार और रसोई आदि के अनेक सामान देखने को मिलते थे जिसके कारण गांवों के लोग लौहारों के अपने गांवों में आने का इन्तजार किया करते थे वह दिन अब पूरी तरह बदल गए हैं रसोई के सामान से चकू से लेकर तवा तक बड़ी कम्पनियों के बने मिलते है वहीं किसानी के काम में हल, पाती, कस्सी, कुल्हाड़ी आदि सब गायब हो गए उनका स्थान ट्रैक्टरों ने ले लिया ऐसे में हमारे द्वारा बना कर बेचे जाने वाले औजार एवं घरेलू सामान की मांग नहीं के बराबर हो गई है ऐसे में हमें खुद के परिवार और बैलों के पेट भरने की समस्या बनी रहती है, ऐसे में बच्चों को पढाने और घर बनाने की बात तो रही दूर जीने के लिए दो टाईम का खाना व तन ढकने के लिए कपड़े मिलना ही दूभर हो चले हैं।
सर्दी, गर्मी, वर्षा हो या बसंत, सब एक समान
सर्दी, गर्मी, वर्षा हो या बंसत की ऋतु हर मौसम हर हाल में अपने पूर्वजों के वचन,,चित्तौड़ खड्यो मज मगरा में, मैं घर में सोंउं क्यां, प्रताप खड़्यो मज जंगलां में, मैं चित्तौड़ रहुं क्या.. यानि चित्तौड$गढ़ सूना पड़ा है ऐसे में मैं घर पर सुख शान्ति से कैसे सो सकता हूं, और महाराणा प्रताप जब जंगलों में घूम रहा है तो मैं चित्तौड़ में कैसे रह सकता हूं की प्रतिज्ञा करने वाले गाडिय़ा लौहार आजादी के 75 वर्ष बीत जाने के बाद भी बदहाली का जीवन जी रहे हैं। सरकार की विभिन्न योजनाओं की तो कलई खुलती ही है साथ में गरीब और आदिवासियों के मानवाधिकारों के लिए लड़ाई लडऩे की डींगे भरने वाले कार्यकर्ताओं व उनके संगठनों की भी गांवों की चौपाल पर धज्जियां उड़ती देखी जा सकती है। इन परिवारों के हालात देखकर ऐसा लगता है कि इनके सहयोग के लिए न तो कभी जिला प्रशासन कोई कदम उठाता है और ना ही राज्य और केन्द्र सरकारें। ये परिवार तो आज भी यायावर जीवन जीते देखे जा सकते हैं।
Source: Education